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काष्ठ शिल्पियों की दशा एवं दिशा! तब और अब
काष्ठ शिल्पियों की दशा एवं दिशा! तब और अब
पुराणों के अनुसार, विश्वकर्मा को ‘प्रजापति विश्वकर्मा’ भी कहा गया है। अर्थात् प्रजा (जनता) के पति। पति के भी कई अर्थ होते हैं। परंतु, यहॉं पति का अर्थ उत्पत्तिकर्त्ता, पालनहार, मालिक, राजा से है। अर्थात, शिल्पी समाज पालनहार के साथ-साथ राजा/मालिक भी हुये हैं।
वेद-शास्त्रों के अनुसार अंगिरा ऋषि को दो पुत्री, ‘भुवन’ और ‘वरस्ती’ तथा एक पुत्र ‘वृहस्पति’ हुये। ब्रह्मा से उत्पन्न आठवें वसु ‘प्रभास’ ऋषि हुये। भुवन और वरस्ती का विवाह प्रभास ऋषि से हुआ। प्रभास ऋषि के पुत्र ‘देवशिल्पी विश्वकर्मा’ हुये। यद्यपि, विश्वकर्मा के उत्पत्ति पर वेदाचार्यों में मतक्य है। तथापि, जहॉं तक मेरी पहुॅंच हो सकी है के अनुसार विश्वकर्मा के चार पुत्र अजैकपाद, रूद्र, अहिर्बुधन्य और त्वष्ठा का होना भी वर्णित है। ब्रह्मा जी के आज्ञा से विश्वकर्मा जी चौदह भुवनों की रचना कर चार मनुओं की सृष्टिी की। मुख से ब्राह्मण सृष्टिी की रचना करनेवाले स्वायम्भुव मनु की, बाहुओं से क्षत्रीय सृष्टिी की रचना करनेवाले स्वारोचिष मनु की, उरू से वैश्य सृष्टिी की रचना करनेवाले रैवत मनु की तथा पैरों से सुद्र सृष्टिी की रचना करनेवाले तामस मनु की सृष्टिी की। स्वायम्भुव मनु के छः पुत्र ऋक्, यजु, साम, अथर्व, वेदव्यास और प्रियवत् हुये। इसके बाद चार उपब्राह्मण पुत्र शिल्पायन, गौरवायन, कास्थायन और मागधायन हुये।
स्कंन्द पुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा जी ने अपने द्वारा उत्पन्न सृष्टिी की रचना करने के लिये अपने मुख से विश्वकर्मा को प्रकट किये थे, जो ब्रम्हा जी का द्वितीय स्वरूप है। शिव की कृपा से भगवान विश्वकर्मा जी के मुख से मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ (पॉंच पुत्र) प्रकट हुये। तब से भगवान विश्वकर्मा पंचमुखी विश्वकर्मा कहलाये। इस आधार पर भगवान विश्वकर्मा हीं रचनाकार, शिल्पकार, सृजनकार ब्राह्मण हैं, जिनके समस्त शिल्पी संतान हैं।
मानव जगत में ज्ञान के श्रोतों को प्रतिस्थापित करने के लिये भगवान विश्वकर्मा जी, अपने पुत्र ‘मनु’ को विद्याभ्यास के लिये अंगिरा ऋषि के यहॉं भेजे। मनु का विद्याभ्यास पूर्ण होने के बाद अंगिरा ऋषि ने अपने तपोबल से ‘कंचना’ नामक मानस पुत्री को प्रकट किये, जिनके साथ मनु का विवाह हुआ। ‘मय’ को परासर ऋषि के यहॉं भेजे। मय का विद्याभ्यास पूर्ण होने के बाद परासर ऋषि ने अपने तपोबल से ‘सौम्या’ नामक पुत्री को प्रकट किया, जिनके साथ मय का विवाह हुआ। ‘त्वष्ठा’ को कौशिक ऋषि के यहॉं भेजे, विद्याभ्यास पूर्ण होने के बाद इन्होंने अपने तपोबल से ‘जयंती’ नामक पुत्री को प्रकट किया, जिनके साथ त्वष्ठा का विवाह हुआ। ‘शिल्पी’ को प्रभुरिचि ऋषि के यहॉं भेजे, जिन्होंने अपने तपोबल से ‘करूणा’ नामक पुत्री को प्रकट किया। करूणा के साथ शिल्पी का विवाह हुआ, और विश्वकर्मा जी के द्वारा अपने पुत्र ‘दैवज्ञ’ को विद्याभ्यास के लिये जैमिनी ऋषि के यहॉं भेजा गया। विद्याभ्यास पूर्ण होने के बाद जैमिनी ऋषि ने अपने तपोबल से ‘चंद्रिका’ नामक पुत्री को प्रकट किया जिसके साथ देवज्ञ का विवाह हुआ।
‘मनु’ शस्त्र का उत्पत्तिकर्त्ता, ‘मय’ लकड़ी से बने वस्तुओं की उत्पत्तिकर्त्ता, ‘त्वष्टा’ लोक हितकारी ताम्र वस्तुओं की उत्पत्तिकर्त्ता, ‘शिल्पी’ मिट्टी एवं पत्थरों के मूर्तियों की उत्पत्तिकर्त्ता तथा ‘देवज्ञ’ स्वर्ण आभूषणों के उत्पत्तिकर्त्ता (शिल्पीकार) हुये। मनु का ऋगवेद, त्वेष्टा का सामवेद, मय का अजुर्वेद, शिल्पी का अथर्ववेद और देवज्ञ का सुषुम्णा नामक वेद प्रदान किया गया। 20 ऋषि गोत्र यथा भृगु, अंगिरा, भारद्वाज, उपमन्यु, वशिष्ठ, कश्यप, मुद्गल, जातुकर्ण्य, शाण्डिल्य, कौण्डिन्य, गौतम, अघमर्षण, वत्स, ऋक्ष, वामदेव, लौगाक्षि, गविष्टर, दिर्घतमा, विद, भृगवांगिरस है। जांगिड़ और पांचाल इसी के कुल शाखा है। लोहार/लोहरा, बढ़ई, ठठेरा, मूर्तिकार और सोनार को अलग-अलग गोत्र प्रदान किया गया। महर्षियों की यज्ञ में उपयोग किये जानेवाली उपकरण तथा वस्तुओं की उत्पत्ति भगवान विश्वकर्मा एवं इनके संतान हीं यज्ञ के समय करते और यज्ञ कराते थे।
मानव सभ्यता को विकसित करने के लिये बह्मा के अनुरोध पर भगवान विश्वकर्मा ने पृथ्वी की रचना की है। धर्मग्रंथों के अनुसार, भू-मंडल के सभी संरचनायें भगवान विश्वकर्मा एवं इनके संतानों का हीं देन है। इनमें ब्रह्मपुरी (बह्म्रलोक), शिवनगरी (शिवलोक), अमरावती, बैकुण्ठपुरी, द्वारिकापुरी, लंकापुरी, वृंदापुरी, हस्तीनापुर इत्यादि प्रमुख और प्रचलित है। देवी-देवताओं के घर-द्वार (मंदिर) आशन-सिंहासन, अस्त्र-शस्त्र, कवच-कुण्डल इत्यादि की रचना भी भगवान विश्वकर्मा एवं इनके संतानों के द्वारा किया गया है। सभी शिव स्थलों का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने रातो-रात किया है। देवघर के पंडितों का माने तो बाबाधाम मंदीर निर्माण होने के बाद ब्रह्ममुहूर्त आना शेष था सो भगवान विश्वकर्मा जी स्वयं का मंदीर निर्माण करने में लग गये। मंदीर का गुंवज निर्माण करने के पूर्व हीं सूर्य उदय होने लगा। तब, प्रजापति विश्वकर्मा को अपने मंदीर का निर्माण कार्य यथास्थिति छोड़ना पड़ा था, जो आज भी अधूरा (गुंवजरहित) है। लोकोक्ति के अनुसार यही कारण है कि शिल्पी परिवार में स्वयं की उपयोग होनेवाली संरचनाओं का निर्माण अधूरा रह जाता है। अपनी इस कमी को दूर करने के प्रति समाज अब भी सचेष्ठ नहीं दिखते हैं। परिणामत्ः, शिल्पी समाज अपने लक्ष्य प्राप्त करने के कुछ पहले हीं दिशाहीन होकर दशा के लिये दया के पात्र बन जाते है।
स्कंध पुराण के अनुसार महर्षी मय के हीं संतान बढ़ई (सुथार) हैं जिनकी उत्पत्ति सर्वोच्च रचनाकार ब्रम्हा से है। गुजरात के सोलंकीवंष के संस्थापक मूलराज सोलंकी थे, जो सुथार जाति अर्थात बढ़ई थे जिन्होंने सोलंकी गणराज्य के अन्दर लकड़ी के अनेकों मंदिर का निर्माण कराया था। गुजरात के सिद्धपुर में स्थित रूद्रमंदिर में लकड़ी की कारीगरी झलकती थी।
आर्य के आने, सिन्धुघाटी में अपना डेरा डालने, बौधिष्ठों को भगाने, गुप्तकाल का पतन करने, आर्यों के द्वारा यहॉं के लोगों पर अत्याचार करने, बार-बार युद्ध करने तथा ‘मनुस्मृति’ को प्रभावी करने के बाद मूलनिवासी पुनः जंगलों में शरण लेने के लिये मजबूर हो गये। मनुस्मृति के प्रभाव से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार ब्राह्मण समाज तक सीमित हो गया था। उपकरणों के सृजनकर्त्ता प्रजापति भगवान विश्वकर्मा के संतान मिहनतकस मजदूर वर्ग की श्रेणी में चिन्हित हो गये। मनुस्मृति के कारण विश्वकर्मा की रचना पर, वर्ण व्यवस्था हावी होने लगी। यद्यपि, मनुस्मिृति के 34 वें स्लोक (द्वितीय अघ्याय) यथा
‘‘ शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्।। ’’
के अनुसार शर्मा, वर्मा, गुप्ता और दास लगाने का वर्णन है। ‘विप्रो’ (ब्राह्मण) को नाम के साथ ‘शर्मा’ रखने के लिये उपदेशित किया गया है। इस आधार पर हीं काष्ठ शिल्पियों के नाम के साथ शर्मा उपनाम लगता आ रहा है। फिर, हिन्दी भाषी राज्यों में नाम के साथ ‘ठाकुर’ उपनाम का भी प्रचलन है, जो ‘नारायण’ भगवान का बोध कराता है।
ज्ञान-विज्ञान की खोज और रचनाओं की आवश्यक्ता के अनुसार अलग-अलग तरीकों से सृष्टिी पर भौतिकतावाद हावी होता गया। फिर, शिल्पकारों (तकनीकी खोज करनेवालों, औजार बनानेवालों, मानवहितकारी वस्तुओं की उत्पत्ति व निर्माण करनेवालों) को उनके हूनर के अनुसार पारितोषिक/उपहार देने की व्यवस्था लागू होने लगी। लोगों को उनके हूनर के अनुसार संपति अर्जित होने लगा। इनका जीवन स्तर व रहन-सहन का तरीका उन्हें प्राप्त उपहार के आधार पर ढ़लने लगी। हूनर के आधार पर भी इनका पहचान बनने लगी। यहॉं पर लिखना प्रासंगिक है कि इन्हीं सब भौतिकतावादी व्यवस्था ने, मानव कोे उनके हूनरों के आधार पर आदेशक-उपदेशक, लड़ाकू, झगड़ालू, मिहनतकस, आलसीपन के रूप चिन्हित किया है। ‘गुगल’ के अनुसार मनुस्मृति के प्रभाव से ‘सुद्र’ में ग्रोत्र से गोत्र के अंदर बेटी-रोटी का संबंद्ध सामाजिक कुरीति माने जाने लगा। अपने संतानों की हित-अहित का समझ बनाये वगैर शिल्पी समाज भी इन कुरीतियों को स्वीकार करने लगे। फलतः बड़े-मझले-सझले-छोटे-इससे छोटे गोत्रधारी भी एक दूसरों से अलग होते चले गये। बेटी-रोटी की यह रीति-रिवाज इस समाज की एकता को ख्ंाडित किया है, जो आज भी प्रभावी है। इसलिये, बेटी-रोटी का संबंद्ध, पुनः पुनर्जीवित हो, अब ऐसा करने की भी जरूरत है।
मानव की आवश्यक्ताओं के निर्माण के बदले, प्राप्त होनेवाले उपहारों के आधार पर, शिल्पकारों का जीवन-स्तर सुधरने लगा। यह समुदाय अपनी इस तात्कालिक सुख पर हीं घमंड करने लगे। ऐसे में शिल्पकारों के अंदर ज्ञान (शिक्षा) प्राप्त करने के प्रति रूझान कम होती गई। दूसरी ओर, आदेशक एवं उपदेशक वर्ग थे, जिन्हें मनुस्मृति के आधार पर शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त होने लगा। मनुस्मृति को अपने अस्तित्व में आने के बाद, निमर्ा्रणकर्त्ता के स्थान पर शिल्पी समाज को मिहनतकस/मजदूर कहा जाने लगा। जबकि इनमें प्रजापति का हीं सभी लक्षण विद्यमान रहना चाहिए था। अर्थात्, शिल्पकारों को भी ज्ञान अर्जन करना चाहिए। ज्ञान के आधार पर आदेशक/उपदेशक तथा इतिहासकार होना चाहिए। परंतु, प्रजापति विश्वकर्मा समाज से इब्राहिम लिंकन, इसा मसीह, न्यूटन जैसे अनेकों चिंतक/मार्गदर्शक/आविस्कारक के होते हुये भी अपने पूर्वजों की धरोहर को जुगता कर रखने में यह समाज सफल नही हुये हैं।
मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय के 79 और 80 स्लोक में ब्रह्मा जी के नाम के पहले प्रजापति शब्द का होना वर्णित है। इस स्लोक में वेदों की उत्पत्ति के श्रोत का भी वर्णन है, जिसके अनुसार अंगिरा ऋषि के द्वारा ‘अथर्ववेद’ (अंगिरस) की रचना की गई है। अथर्ववेद से ओ३म (ओंकार) शब्द की उत्पत्ति हुई है। ओ३म आधारित ‘गायत्री मंत्र’ के प्रचारक और रक्षक पंडित श्रीराम शर्मा जी (संस्थापक, अखिल विश्व ज्ञायत्री परिवार), काष्ठ शिल्पी हीं हैं।
वर्तमान को माने तो ज्ञानी जैल सिंह (पूर्व राष्ट्रपति), पद्म भूषण सैम पित्रोदा (भारत में सूचना क्रांति के अग्रदूत), कुलपति डॉ॰ पी॰सी॰ पंतजलि, डा॰ मिश्रीलाल ठाकुर इत्यादि, सांसदों में प्रदीप टम्टा, जी.टी. नामग्याल, राज बब्बर, मधुसूदन मिस्त्री, राम चन्द्र जांगड़ा इत्यादि, विधायिका में रामेश्वर शर्मा, रामजी प्रसाद शर्मा, गौतम सागर राणा, महावीर लाल विश्वकर्मा, राज कुमार सैनी, रामाश्रय विश्वकर्मा (यू.पी.), सुदिष्ट कुमार सोनू (गिड़ीडीह विधान सभा), रामचन्द्र शर्मा (1957 टुंडी विधान सभा), हंसराज विश्वकर्मा (माननीय प्रधानमंत्री श्री दामोदर दास नरेन्द्र मोदी के सांसद प्रतिनिधि), स्वतंत्रता सैनानी बृज मोहन शर्मा (फारबिसगंज), लौहपुरूष कामेश्वर शर्मा (कामेश्वर नगर, समस्तीपुर), जाति से जमात के नेता स्व॰ बिन्देष्वरी शर्मा (बेगुसराय), नेमीचॅंद जांगीड़ (गुजरात), फिल्म निर्माता वही॰ शांताराम, रामानंद सागर, प्रकाश झा, फिल्म अभिनेत्री प्रीति जिंटा, फिल्म अभिनेता अजय देवगन, कवलजीत सिंह, फिल्म गीतकार जयकिशन, गजल गायक जगजीत सिंह, उदित नारायण, संगीतकार गुलजार, भोजपुरी लोकगायक सुरसम्राट भरत शर्मा ‘व्यास’, अन्य क्षेत्रों में पùश्री दीपा कर्मकार (जिम्नास्ट), पद्म भूषण राम वी॰ सुतार (मूर्तिकार), अंजली (तिरंदाज), हरभजन सिंह (क्रिकेटर), श्याम बाबू शर्मा (मोटिभेशन गुरू), क्षमा शर्मा (पत्रकार), मिहीरचन धीमान, डा॰ ओ॰ पी॰ शर्मा (जादूगर), भा॰प्र॰से॰ के ऑफिसर चिराग भाई पांचाल (अपर सचिव, पी॰एम॰ओ॰), जे॰एन॰ विश्वकर्मा (अभियान प्रमुख, विश्वकर्मा एकीकरण), इश्वर चंद शर्मा, भा॰पु॰से॰ में गणेश शर्मा, राजीव रंजन ……., ई॰ वीरेन्द्र नारायण ठाकुर (मुख्य अभियंता) के पिताश्री राम बुझावन ठाकुर (पी॰ए॰ टू डी॰एम॰ एवं सेलटैक्स ऑफिसर), डॉ॰ रामदेव शर्मा, अषोक कुमार शर्मा (से॰नि॰वाणिज्यकर आयुक्त), सुरेश शर्मा (से॰नि॰ अपर समाहर्त्ता), धनेश्वर शर्मा (पूर्व डाकबाबू), बिन्देश्वर ठाकुर, (अपर अभियंता, रेल), टी॰एन॰ शर्मा (पूर्व डी॰एस॰पी॰ विजलेंस), यू॰पी॰ शर्मा (पूर्व निदेशक), बिन्देश्वर शर्मा, पंडित दिनेश प्रसाद शर्मा, कंकाली ठाकुर, कमलदेव ठाकुर, डी॰सी॰ मिस्त्री, वासुदेव शर्मा, मिथिलेश कु॰ ‘मधुकर’, बेबी चंकी, अधिवक्ता गौड़ी शंकर शर्मा, विनय मिस्त्री, नेता यू॰पी॰ शर्मा, शैलेन्द्र कु॰ कौषिक, मदन शर्मा, राम दुलार शर्मा, हेम ना॰ विश्वकर्मा, अंजूला शर्मा …… चिंतक/मार्गदर्शक (जिनकी चर्चा लगभग सभी बैठकों में हुआ करता है) हुये हैं और हैं। फिर, हमारी दिशा कैसे और कब भटक गई….., इसे परखते हुये इस भटकाव पर पूर्णविराम लगाने की महती जरूरत है।
क्या, हमारे चिंतक और मार्गदर्शक अपने समाज को दिशा देने में चूक कर गये या फिर कंजूसी कर गये। शिल्पी समाज इनका साथ नहीं दे सके या वे स्वार्थी हो गये। काष्ठ शिल्पी, अपने हूनरों पर गुमान करते हुये स्वयं में संतुष्ठ रहने लगे या फिर उपहारदाता को हीं अपना सर्वस्व समझने लगे। जो भी हो …….! परंतु, यह सत्य है कि अपनी खोती हुई उत्त्कृष्ट विरासत को प्राप्त करने के प्रति सजगता का षिल्पी समाज में अब भी अभाव है। जानकारों के अनुसार आर्यों के 75 प्रतिशत घर में मनुस्मृति है। वे अपने बच्चों को मनुस्मृति पढ़ाते एवं इसकी महिमा को बताते थकते नही। मगर, ब्राह्मण की स्वीकारिता के लिये ललाईत इस शिल्पी समाज के यहॉं विश्वकर्मा पुराण मिलना एक संयोग हीं कहा जा सकता है। ऐसे में पढ़ना और समझ कर अपने बच्चों को बताना ‘‘दूर का ढ़ोल’’ है।
चिंतकों का मानें तो शिल्पियों को निर्माण (काम) में बिताये गये समय और किये गये श्रम के बदले खेत-खलिहान, गाछ-वृक्ष, माल-मवेशी इत्यादि मिलने लगा। पारिश्रमिक के रूप में पारितोषिक की यही चलन ने पूजा-पाठ सामग्री के जुगार करनेवाले कुम्हार, माली, नाई वर्ग की तरह हीं काष्ठ शिल्पी को भी पौनी-पसारी की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया ! जिसे तब से लेकर अब तक अज्ञानता बस शिल्पी समाज निःसंकोच स्वीकार करते आ रहे हैं। भलेहीं, आप बहुत धनवान हैं, बुद्धिमान हैं, ज्ञानवान हैं, ओहदेवान हैं, परंतु समाज में काष्ठ शिल्पियों की पहचान, अब, सृजनकर्त्ता/निर्माणकर्त्ता नहीं, अपितु, पौनी-पसारी व मजदूर के रूप में स्थापित हो गई है। बहरहाल, यह समाज दिशाविहीन होकर दया के पात्र तो दिखता हीं है, साथ हीं साथ उपेक्षित भी है। धन कमाने की लालच में अपने हूनर निर्मित वस्तुओं को उत्तम तथा अपने हीं भाईयों के हूनर निर्मित वस्तुओं को निम्नत्तर दिखाने की कपटपूर्ण रवैया ने षिल्पी-षिल्पी और भाई-भाई के बीच कटुता बढ़ा दिया है। यह भी कारण है कि काष्ठ षिल्पी समाज अपने भाईयों के परामर्ष/विचार पर कावं-कावं करते थकते नहीं हैं। इसलिये इस समाज को ऐसे सभी कमियों को त्यागना होगा।
सृष्टि के रचनाकार (शिल्पियों) के साथ, ऋषियों ने छल किया या फिर स्वयं ब्रह्मा ने, विष्णु ने छल किया या महेश ने। राम ने छल किया या रावण ने। कृष्ण ने छल किया या फिर कंश ने। अपनों ने अपनों को छल किया या भारतवंशी ने अथवा आर्य ने ? इन कारणों को सुलझाने की उपायों के तहत, शिल्पी समाज में चर्चा-परिचर्चा, गोष्ठी-संगोष्ठी, संस्था-जत्था एवं संगठन-समिति का महत्व अब और बढ़ गयी है। यद्यपि, ‘विष्वकर्मा काष्ठ षिल्पी विकास समिति’ इस दिशा में 16 अगस्त 1995 से निरंतर प्रयत्नशील है। एकजूटता, संघर्ष और धरना-प्रदर्शन के बदौलत जो कुछ भी हासिल हुआ है, इसकी चर्चा संगठन की प्रत्येक बैठकों/अधिवेशनों में प्रधान महासचिव श्री राम भरोस शर्मा के द्वारा किया जाता/किया गया है। बुकलेट के रूप में भी समय-समय पर प्रकाशित की जाती रही है। संगठन के बेववाईट ूूूण्ओअेण्बवउ पर भी प्रदर्शित है। संगठन के उद्देश्य, कार्यक्रमों एवं उपलब्धियों की चर्चा, श्री जयनारायण शर्मा, (सेना में शिक्षण कार्य 1964-1986) द्वारा लिखित एवं डी॰ एस॰ बुक्स डिस्ट्रीब्यूटर (साईंस कॉलेज पटना के सामने) द्वारा साल 2015 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘बढ़ई जाति का इतिहास’’ में भी मिलता है।
तथापि, अब भी बहुत कुछ करना बांकी है।
होस होने के साल 1976 से समाज के लिये जो कुछ भी इमानदार प्रयास किया है तथा इन अवधियों में जो कुछ भी मैने परखा और समझा है, के आधार पर लाग-लपेट के वगैर मुझे लिखने में कोई संकोच नही है कि जो अमीर हैं, उन्हें गरीब की चिन्ता नही! जो नौकरशाह (ऑफिसर/कर्मचारी) है, उन्हें समाज की चिन्ता नही! जो शिक्षित हैं, उन्हें अशिक्षित की चिन्ता नही! जो नेता है, उन्हें काष्ठ शिल्पी समाज में एकता की चिन्ता नही! जो वजूद में हैं, उन्हें मजबूर की चिन्ता नही ! जिन्हें, अपनों से दरकार है, उन्हें अपने अकरण को दूर करने की चिंता नही! अर्थात्, संक्षेप में कहें तो एक दूसरों के प्रति विश्वास का माहौल पैदा करने तथा इमानदार प्रयास करनेवाले समाजसेवियों को परखने की कौशलता का काष्ठ षिल्पियों में सर्वथा अभाव है। सत्य यह भी है कि कुछेक काष्ठ षिल्पी, दिग्भ्रमित हो, व्यक्तिगत महात्वाकांक्षियों की उद्देष्य विहीन बेजान झुण्ड में शामिल हो, काष्ठ शिल्पियों की एकता के बाधकों की सूची में अपना नाम भूलबस दर्ज करा ले रहे हैं। लेकिन तब तक ‘‘अब पछताये होत क्या? चिड़ियॉं चुन गई खेत’’
नौकरशाह (ब्यूरोक्रेट) का कहना कि इन्हें संगठन में जाने और बोलने की आजादी नही है? इनका कोई सुरक्षा कवच नही है। सिस्टम के अंदर ये अपने को असहाय दिखते हैं। इत्यादि ……इत्यादि। लेकिन इनके इस कथन को 24 क्रेट का होना, मै नहीं मानता। ऐसे लोग यदि चाहें तो मेरे जीवनकला को भी पढ़ सकते हैं। संभव है कि इनकी यह गलतफहमी दूर हो जाय! हॉं, यह सही है कि मेरे हीं तरह इन्हें भी मुख्यालय छोड़ने की अनुमति की आवश्यक्ता है। परंतु, अवकाश के दिनों में अपने मुख्यालय के स्वजाति कार्यक्रम में अपने विचारों की प्रस्तुतिकरण के इच्छुक व्यूरोक्रेट के लिये सरकारी सेवक आचार संहिता बाधक नही है। बस, जरूरत है, टाईम मैनेजमेंट करने की, जिसे ज्तंपदपदह च्तवहतंउ वद म्दींदबपदह स्मंकमतेीपच ैापसस क्मअमसवचउमदज ;28 श्रनसलण् जव 1ेज ।नहनेज 2008द्ध के बीच टण्टण् ळपतप छंजपवदंस स्ंइवनत प्देजपजनजमए छमू क्मसीप में प्रशिक्षण के दौरान मैने भी सीखा है। क्योंकि, संस्था की अनुशंसा पर भारत सरकार के खर्चा से हजारों बढ़ई भाईयों की तरह प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर मुझे भी मिल पाया था।
सब कुछ होते हुये भी राजनीतिक अदूरदर्शिता एवं दृढ़इच्छाशक्तिहीनता के कारण शिल्पी समाज कानून बनानेवाली विधायिका तक पहुॅंचने से कोसो दूर चल रही है, जिसे पाने के लिये चुनावों में
हारने के लिये खड़ा होना है,
हराने के लिये खड़ा होना है।
अपनों को जीताने के लिये खड़ा होना है,
दूसरों को हराने के लिये खड़ा होना है।
लेकिन खड़ा होना हीं होना है।
क्योंकि, जीत भी इसी रास्ते से होना है।
अस्तु, शिल्पियों को एक प्लेटफार्म से टज्ञैटै को और मजबूत करने का दरकार है।
अस्तु, पंचमुखी प्रजापति भगवान विश्वकर्मा के संतानों को, अपनी इतिहास को जानने, भविष्य के लिये अपनी कमियों पर परदा डालने की आदत छोड़ने, झूठी शान/अकरण को त्यागने, शिक्षित समाज की तरह हीं बच्चों के लिये जबावदेही स्वीकार करने, समय प्रबंधन (टाईम मैनेजमेंट) के तहत समय का सदुपयोग करते हुये कुछ समय संगठन में देने, बच्चों को परोशी सगे-संबंधियों के शिक्षित परिवार से संगत कराने, मनुवादियों की तरह बच्चों को पढ़ाने के लिये भिखमंगा बनने तथा धैर्य के साथ इन्हें उच्च एवं प्रतियोगी शिक्षा दिलाने, स्त्रिी शिक्षा की महत्ता को समझने, पहले डी॰एम॰/एस॰पी॰/न्यायाधीश और संपादक/नेता योग्य बनाने, अन्यों की भांति अपने भाईयों को भी दूसरों के समक्ष प्रोजेक्ट करने, कमियों को रहते भी एक दूसरों को मान-सम्मान देने की आदत अपनाने, परिवार में राम-लक्ष्मण और भरत-शत्रुघ्न जैसी भईयारी को स्थापित करने, संगठित होकर अंदर की सोई संस्कार को जगाने, समाज के प्रबुद्ध लोग एवं नेतृत्वकारी भाईयों की कमियों को उनकी उपस्थितिवाली बैठकों में हीं निडरता पूर्वक रखने, अपनी ताकत को एकत्रित करने, दैनिक समाचार पत्र को पढ़ने तथा बच्चों को पढ़ाने, शिल्पी-शिल्पी में बेटी-रोटी का संबंध पुनः बहाल करने……… जैसी सभी कार्य शुरू करने की नीतांत आवश्यक्ता है। अलावे, षिल्पियों को नित नये संगठन बनाने से परहेज करते हुये एक धारदार संगठन की पहचान करना होगा। ऐसे संगठन की बैठकों की जानकारी स्वयं प्राप्त करना होगा। निमंत्रण मिलने की आषा को त्याग कर बैठकों में बिन बुलाये जाना होगा। बैठक में अपने सुविचारों को नीडरतापूर्वक रखने की आदत डालना होगा। झोला ढ़ोने की आदत छोड़ना होगा। इत्यादि-इत्यादि….। कुल मिलाकर, एकता की चिंता करनेवालों को ऐसा करना होगा। तब, निःसंदेह षिल्पी समाज अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकेगा।
औरों की तरह मुझे और आदरणीय श्री राम भरोस बाबू को भी नौकरी के बाद बचे समय को शीर्फ व शीर्फ अपने बाल-बच्चों पर देने की आदत डालनी चाहिए। मगर, ‘‘एक पेट तो …….. भी पाल लेता है’’ को जानकर तथा ‘‘जो अपने लिये चाहते हो, वह दूसरों के लिये करो!’’ के सिद्वांत पर संगठन से जुड़े लोग निडरता पूर्वक आगे बढ़ते रहे हैं। परिणामतः, विश्वकर्मा काष्ठ शिल्पी विकास समिति की कारवां बढ़ती गई। संघर्ष के बल पर साल 2009 में ‘अत्यंत पिछड़ा वर्ग’ का अकाल्पनिक लाभ मिला! फलतः, 0.75: से बढ़ कर मात्र 12 साल के अंदर नौकरी में 2.06: पर पहुँच गये हैं। जो कहते हैं, कि संगठन के नेतृत्वकर्त्ताओं ने हमारी जाति बदल दी, आज उनके बाल-बच्चें भी अत्यंत पिछड़ा वर्ग (अनुसूची 1) का लाभ ले, सरकारी सेवा सहित त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थानों में प्रवेष कर रहें हैं।
इसी संगठन के कारण सरकार को बिहार भवन सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड का गठन करना पड़ा। जिला स्तर पर जिला सचिव इस बोर्ड में नोडल के रूप में काम करते हैं, जिनके अनुषंसा पर संगठन के सदस्य, उक्त कल्याण बोर्ड का सदस्य स्वतः हो जाते हैं। सदस्य को प्रथम वर्ष में चिकित्सा के लिये 3 हजार मिलता है। सदस्यता का नवीकरण कराते रहने पर साईकल के लिये, औजार के लिये, दो बच्ची की शादी के लिये, घर बनाने के लिये, बच्चों को आई॰टी॰आई॰ और इन्जीनियरिंग में पढ़ाने के लिये अलग-अलग राषि व छात्रवृति मिलती है। 60 वर्ष के बाद पेंषन भी मिलता है। मृत्यु पर दाह-संस्कार के लिये भी सहायता मिलती है। योजनांतर्गत काष्ठ षिल्पी सदस्यों को अबतक 19 करोड़ 63 लाख रूपया मिल चुकी है। काष्ठ षिल्पी भाई, इस संगठन के सदस्य बनते और नवीकरण कराते तो यह राषि 50 करोड़ तक हो सकती थी। मगर दिग्भ्रमित होने के कारण लोग इस लाभ से वंचित हो रहे हैं, जिसके संबंध में विस्तृत जानकारी प्रधान महासचिव के प्रतिवेदन में भी मिल सकता है।
साल 1988 से अबतक के संगठनात्मक अनुभव के आधार पर मुझे यह कहने में कोई हिचक नही है कि जाति संगठन चलाना ‘‘आकाष से तारा तोड़ने’’ के बराबर है। क्योंकि, लोगों की अपनी हीं भूल क्यों न हो, परंतु ऐसे लोग केवल और केवल आपके कमियों को प्रचारित करने में तनिक बिलंब नहीं करते हैं। हमारे लोग भी ऐसे हैं कि छान-बीन किये वगैर ऐसी दुष्प्रचारित बातों में हामी भर देते हैं। इस तरह के लोगों की अधिकता के कारण हीं हमारी एकता बिखड़ती है। मगर, बिहार का यह संगठन (विकासविस), एकमात्र एकलौता संगठन है, जो बिखरने के बजाय निखरते व बढ़ते हीं जा रही है। प्रतिफल है कि काष्ठ षिल्पी समाज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदहाली के आधार पर यह संगठन ‘अनुसूचित जाति’ में बढ़ई समाज को शामिल कराने की लड़ाई लड़ रही है। 4 अप्रैल 2018 को पटना के गाँधी मैदान में सम्पन्न ‘‘विष्वकर्मा अधिकार रैली’’ के माध्यम से अपनी इस आवाज को सरकार तक पहुँचा चुकी है। अगर, काष्ठ षिल्पी समाज अपनी चट्टानी एकता को इसी तरह बरकरार रख पाती है तो निःसंदेह वह अधिकार भी प्राप्त हो जायेगा, जिसके लिये यह समाज 73 वर्षों से आंदोलित है।
इसलिये, हे विष्वकर्मा पुत्रों, अपने ब्रम्हनत्व को पहचानो, चिंतन-मनन करो, सभी गिला-सिकवा भुलाकर एक मंच से एकता का संकल्प व शपथ लो। निःशंदेह, अपनी खोई संस्कृति को प्राप्त करने में यह समाज सक्षम व सफल हो सकेगा। तब देखना! इतिहास के आधार पर ‘दिशा’ पुनः स्थापित हो, समाज की ‘दशा’ सुधर जायेगा। इन उपायों के लिये विश्वकर्मा काष्ठ शिल्पी विकास समिति (टज्ञैटै) की बैठकों में शामिल हो इसे जानिये, इसके नेतृत्वकारी भाईयों को पहचानिये तथा इनके इमानदार प्रयासों को समझिये……। अस्तु, अपने जिला व प्रखंड के अध्यक्ष/ सचिव/कोषाध्यक्ष के सहयोग से स्वयं भी सदस्य बनें और सदस्यता ग्रहण करने के लिये दूसरों को भी बतावें ……………………………। इन्हीं विष्वास के साथ एक बार बुलंद आवाज से बोलो,
भगवान विश्वकर्मा की …………जय! शिल्पी एकता ……….. अमर रहे !!
निवेदन यह भी है:- अपने विचारों से अवगत कराते रहेंगे !
ताकि सुधारों के साथ उपस्थित होता रहूॅं !!
शिव पूजन ठाकुर
(रूपौली घाट, दरभंगा)
संस्थापक एवं प्रदेश महासचिव
विश्वकर्मा काष्ठ शिल्पी विकास समिति, बिहार
सेवा निवृत्त प्रधान सहायक
7004711840, 9931640658